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बे-मौसम बरसात, ओलावृष्टि ने देशभर में भीषण तबाही मचाई. फ़सलें तबाह और बर्बाद हो गईं. भूख़ से रोते-बिलखते-तड़पते मासूम बच्चों और निर्दोष परिवार वालों को बेबस-असहाय भाव से देखते किसानों की पीड़ा असहनीय होती चली गई और वो मौत को गले लगाते चले गए. बे-मौत मौत का ये सिलसिला है कि थमने का नाम ही नहीं ले रहा. केन्द्र-राज्य सरकारों की मुआवज़े की भारी-भरकम घोषणाओं के बावजूद मौत का ये ताण्डव रोके नहीं रुक पा रहा.
सबसे पहले इस बात पर ध्यान देना ज़रूरी है कि आत्महत्या करने वाले ज़्यादातर लोग वाक़ई किसान हैं या ज़मींदारों-पूँजीपतियों और साहूकारों के खेतों में काम करने वाले वो खेतिहर मज़दूर जिन्हैं खेतों में जी-तोड़ काम करने, फ़सलों की बुवाई, सिंचाई, कटाई और सफ़ाई के एवज में हिस्से के रूप में मुठ्ठी भर अनाज मात्र मिलता है और वो भी फ़सलों की बर्बादी के चलते उन ग़रीबों को नहीं मिल पाया.
दूसरी महत्वपूर्ण बात ये है कि अगर मुआवज़ा मिल रहा है तो आख़िर किसे ? ज़मीन के काग़ज़ी मालिकों को या अपने ख़ून-पसीने से सींचकर उन पर अनाज उत्पन्न करने वाले उन ग़रीब, बेबस, लाचार, मजबूर खेतिहर मज़दूरों को ?
आख़िरकार सही तरीक़े से या ज़मीनी स्तर पर नुकसान के आँकलन के लिए ज़िला स्तर पर समितियाँ अभी तक क्यों नहीं बनाई गईं ताकि वास्त्विक़ पीड़ित को तत्काल उचित मुआवज़ा मिल सके और पूरे देशभर का पेट भरने वाले “अन्नदाता” और उसके परिवार के भूखों मरने या फाँसी पर लटकने की नौबत कभी ना आ सके ?
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